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Thursday, November 24, 2016

माँ

माँ घर में रहती थी
हमारी ज़रूरतें पूरी करती थी
हर तरह की ज़रूरतें
हम सभी की ज़रूरतें
माँ हमारी सीढ़ी बनी
हम ज़मी से आसमान हो गए
हम ज़िंदगी की तेज़ रफ़्तार में
उसकी धीमी धीमी ज़िंदगी को पीछे छोड़ते चले गए

माँ जो घर की हर चीज़ में समायी रहती थी
अब सिमट गयी है एक कोने में
एक बिस्तर पर वक़्त की चादर लपेटे
इंतज़ार आँखों में समेटे
माँ बहुत कुछ कहना चाहती है पर कहती नहीं

हम स्वार्थी हैं, ये भी माँ जानती है
माँ अब हमारी स्वार्थी हो जाने की ज़रूरत को पूरा करती है।

।। मृदुल प्रभा ।।