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Saturday, November 14, 2015

चल बच्चे बन जाते हैं

चल बच्चे बन जाते हैं
बचपन में लौट जाते हैं,
सहज और सरल हो जाते हैं
भरी दुपहरी में खेल के आते हैं, चल बच्चे बन जाते हैं

तुम अमियाँ तोड़ के लाना
मैं नमक मिर्ची लाऊँगी
बरसाती में बैठ के चटखारे ले के खाते हैं, चल बच्चे बन जाते हैं

मिट्टी पे नाम लिखते हैं
स्लेट पे शक्लें बनाते हैं
और दिल के किसी कोने में ढाँप के रख जातें हैं, चल बच्चे बन जाते हैं

बहोत दिनों से तुम घर पे नहीं आए
चल घर घर खेलते हैं
एक दूसरे के घर हो आते हैं, चल बच्चे बन जाते हैं

शायद किसी का मकां बन रहा है,
रेत का ढ़ेर आया है
चल न, रेत में हम भी घर बनाते हैं, चल बच्चे बन जाते हैं 

शरारत करने का मन है
मंदिर के पास वाले पीपल के पेड़ से
किसी की मन्नतों के धागे खोल आते हैं, चल बच्चे बन जाते हैं

चकाचौंध बहोत है सपनों के शहर में
तेज़ रौशनी में दोस्त भी नहीं दिखते
चल अपने छोटे से शहर हो आते हैं, चल बच्चे बन जाते हैं

चल अबकी बार होली में
कच्ची उम्र के पक्के रिश्ते
रंगों से भर आते हैं, चल बच्चे बन जाते हैं



Saturday, July 4, 2015

ਔਖਾ ਜੇ ਨਿਭਾਉਣਾ ਹੋਵੇ ਪਿਆਰ ਨਹਿਯੋੰ ਪਾਯੀਦਾ

ਔਖਾ ਜੇ ਨਿਭਾਉਣਾ ਹੋਵੇ ਪਿਆਰ ਨਹਿਯੋੰ ਪਾਯੀਦਾ
ਦਿਲ ਪਰਚਾਉਣ ਲਯੀ ਯਾਰ ਨਹੀਂ ਬਨਾਯੀਦਾ

औखा जे निभौना होवे प्यार नहींओ पाइदा
दिल परचौंण लई यार नहीं बनाईदा
जिस्मा दे रिश्ते बाजार विकदे ने
जिस्मा दे रिश्ते लई यार नहींओ चाहिदा

प्यार जिस विच बसे दिल घर रब दा
पाक इरादे होण यार बसे सब दा
चलाकियाँ  दे नाल हथ मार नहींओ जाइदा
औखा जे निभौना होवे प्यार नहींओ पाइदा ....

लड़ जिहदा फड़ लईऐ रिश्ता निभाईदा
औखे समे विच कल्ले छड नहींओ जाइदा
सच्चा प्यार वडियाँ मुरीदाँ नू है मिलदा
झूठियाँ कहानियाँ च जड़ नहींओ जाइदा…
औखा जे निभौना होवे प्यार नहींओ पाइदा ....

मृदुल 

Recited it on the inaugural Poetry Event of FWA.  Please do not copy, paste or reproduce in any form without my written consent. All creative works on my blog are registered. Copyright@Mridual aka writingdoll

वो

वो जब भी बैठता है ज़ोर ज़ोर से पैर हिलाता है
दो कदम पास आता है तो वापिस लौट जाता है

अज़ीब कशमकश में रहता है वो शख़्स
दूर जा न पाता है न पास बैठ पाता है

और, अजीब इत्तेफ़ाक़ है ये ज़िन्दगी के
हम जिसे याद करते हैं वो हमको भुलाता है

सर्द चाँदनी रातों में नींद कहाँ आती है
उसके घर में वो साया जब नज़र आता है

उसको पोंछू, सुखायुँ मैं निभायुं कैसे
समंदर बेहयाई का वो पीछे छोड़ जाता है

मृदुल

Recited it on the inaugural Poetry Event of FWA.  Please do not copy, paste or reproduce in any form without my written consent. All creative works on my blog are registered. Copyright@Mridual aka writingdoll

Wednesday, June 24, 2015

रफ़्ता रफ़्ता

कैसे बदल जाती है हर बात रफ़्ता रफ़्ता
कैसे बदल जाते हैं हालात रफ़्ता रफ़्ता

कब, कहाँ, क्यों, क्या हो जाता है
कैसे उभर आते हैं सवालात रफ़्ता रफ़्ता

शब-ए-ग़म भी लम्बी हुआ करती है अक्सर
फ़िर भी गुज़र जाती है हर रात रफ़्ता रफ़्ता

यह इश्क़ भी ज़ालिम मर्ज़ होता है ऐसा
करती है असर भी हयात रफ़्ता रफ़्ता

यूँ तो मेरी उस से पहचान है पुरानी
पर भूलने लगी हूँ हर बात रफ़्ता रफ़्ता

देने वाला था मुझको जो प्यार बेशुमार
खुशीयाँ चुरा के ले गया वो यार रफ़्ता रफ़्ता

I wrote this one in 1986 ... those were the days.... of Gazals. Recited it on the inaugural Poetry Event of FWA.  Please do not copy, paste or reproduce in any form without my written consent. All creative works on my blog are registered. Copyright@Mridual aka writingdoll

Tuesday, June 23, 2015

एक लड़की की तरह???

"क्या एक लड़की की तरह रोता है!"
"क्या एक लड़की की तरह रोता है?"

"क्या   एक    लड़की  की  तरह  रोता  है?"
मात्र इन 'शब्दों' से ही 
एक लड़के का अपमान होता है
कि जैसे रो देना हो एक गन्दी बात,
अौर लड़की होना उससे भी शर्मनाक
इसी क्षण  में…….
उसके मन में…..
एक सोच जन्म लेती है 
जो किसी भी अौरत के अपमान का
अंकुर बो देती है।

Wrote this piece when I was working on my art installation Broken Doll House at KGAF 2013. This became a very popular and was widely shared. Recited this for the TV Coverage for news channels, recited this @Prithvi Theatre, open mic, Avotoko Room theatre, FWA poetry event. Please do not copy, paste or reproduce in any form without my written consent. All creative works on my blog are registered. Copyright@Mridual aka writingdoll

Saturday, March 21, 2015

To My Little Brother

Another year since you have gone
How far have you traveled?
Can I ever catch up with you?
Talk to you again?
Where are you? In Heaven?

Up in the mountains I go rotating 'Mane', 
the prayer wheels of this Budhist Gompa
to send my prayers for you
Am I close to the heaven?
Am I close to you?

I go around spinning wishes
with my numb fingers
The snow on these spindles is melting
The sun is bright and close, very close
Are you close by too?
I am trying to reach you through air and ether
Am I reaching you?

I can not hug you or touch you,
or see you in flesh and blood
or talk to you about somethings you left unsaid..
Things, about all of us, about our mother
who searches you in her empty womb
and about the inanimate things left in 'your' room.
The song playing on your music system,
the magazine on your table
and half done packing for your travel.

How could you leave to an unknown destination
unplanned, unprepared?
Where are you? We miss you.
Do you?

Wrote this in April 2001 in Tangtse, Ladakh Valley, at an altitude of 13000 ft.  These words are for my youngest brother who left us in tears on the 25 APR 1998. Just 13 days before his 21st birthday..... Life has never been same without him. He took away a part of each one of us, his siblings and a major chunk from my mom's life. We miss him a lot. There is a void unfilled, questions unanswered and pain unsaid.

Thursday, March 19, 2015

The Perfect Fitting Shoes

Today I opened the box
of shoes, you had brought.
The yellow shoes, those fitted my feet perfectly, unlike
the me in your life.
You measured my feet
and my love for shoes,
but for you?

Now you never will walk beside me
or hold my hand.
You grew out of that nascent love
and flimsy feelings.
My feet did not grow.

I could slip into those shoes
that you presented to me one day
for this lonely yet comfortable walk
through the by lanes of that
not so perfect past.

I look at my beautiful feet and smile,
what made you bring shoes
of all the things....

Copyright Mridual@writingdoll

Written in the June of 93,  The shoes...yellow slip on...I gave those away...almost new.  Some memories are crazy and funny but they are good ideas for poetry. :)

Friday, February 27, 2015

Measure of Pain

Could you measure the pain
I am going through
Could you measure?
Measure it any how?

In Miles, the distance
I ran,
to run away from miseries.
In Gallons, the tears
I shed,
in many nights in many years.
In Tons, the load
I carried,
on my chest through
this long journey.

Its pain all over
in miles
in gallons
in tons.

Could you measure?

Tuesday, February 10, 2015

लैची चाचा के संग होली

होली आई, आई होली
खुश है बहुत बच्चों की टोली
नयी पिचकारी नए रंग
खेलेंगे अपनों के संग
भर पानी गुब्बारों में
फेंकेंगे चौबारों से।

हर होली पे लैची चाचा
पहन सफ़ेद कुरता आते
ज़रा रंग लग जाये तो
जोर जोर से चिल्लाते

मन करता था पूछें उनको
घर में काहे नहीं रहते हो
बच्चों को उकसाते हो
क्यों इतना गुस्साते हो

इस से पहले लैची चाचा
कुछ कहते कुछ समझाते
चारों ओर से गुब्बारों की
उन पर ऐसी बौछार पड़ी
अबीर गुलाल के उड़ते बादल
पिचकारी की भी धार पड़ी
नीले, लाल, पीले, काले
मुँह, सर, पैर बुरे रंग डाले

यहाँ वहां खड़े थे रंग चोर
चारों ओर मचा था शोर
रंगे वानरों की भीड़ में
किसी को न पहचान सके
लैची चाचा संग हुआ क्या
बौखलाए कुछ न जान सके

बंदरों के समान उछलती
आई फिर बच्चों की टोली
रंग बिरंगी गुड़िया जैसी
इक नन्ही सी लड़की बोली
"लैची चाचा बुरा न मानो
होली है,  होली है होली।"

Childhood memories are the sweetest and they occupy that special corner in one's heart. 'Laichee' uncle was one eccentric old man in my home town, who reacted quite similar to the way I have written here. He hated it when someone called out 'Laichee' .... and hurled shoes at them. I bore the brunt of someone's mischief when he hurled a shoe at me on my way back home from school. I never knew why. Then he would actually dare people to spoil his white Kurta on Holi. Everyone was so scared yet people would throw some colour at him from roof tops. This would kick start his non stop gaalis and laughter all around. This poem is dedicated to his memory..where ever he is. And Holi is a wonderful festival of colours to express love and joy.. even to the eccentric oldies. :) Wrote in March 2014

Do not copy in any way. It is registered under copy right law. mridual@writingdoll

उम्र बनाम ज़िन्दगी

उम्र गुज़ारी नहीं है
दरीचों से झाँक कर
ख़ाक छानी भी है
देखी भी है फाँक कर

स्याह काली रातों में
बुने रंगीन सपनों को
तोड़ते भी देखा है
अपने किसी अपनों को

खुशियों की तालाश में
ख़ानाबदोश की तरह
यहाँ वहाँ कई बार
सरफ़रोश की तरह
ज़िन्दगी गुज़ारी है
लम्हा लम्हा तन्हा तन्हा

गणित ज़िन्दगी का

गणित ज़िन्दगी का

स्कूल में मुझे गणित नहीं था भाता
शायद इसलिए नहीं था आता
या फिर गणित मुझे नहीं था आता
शायद इसलिए नहीं था भाता

मेरे दिमाग में अंकों से बहशत छा जाती
आंकड़ों के सामने दिमाग की बत्ती बंद हो जाती
मेरी माँ का गणित था बहुत अच्छा
मेरे लिए उनकी ऊन का उलझा लच्छा
वह रात को अक्सर मुझे गणित पढ़ाती
गणित से तो मुझे दिन में भी नींद आ जाती
एक एक प्रश्न को वो स्लेट पर समझाती
जो स्लेट पर से मिटते ही दिमाग से मिट जाती
कई प्रश्न मुझे कभी समझ नहीं आए
समझ नहीं आया कि ऐसे प्रश्न ही क्यों उठाये
जैसे, "कि एक टैंक भरता है
पर एक नल टपकता है
तो कितने वक़्त में वह
टैंक खाली करता है'
अरे टैंक है भरना
तो खाली क्यों करना
पानी बचाओ नल बदलवाओ
इन बेवज़ह प्रश्नों से बच्चों को बचाओ

खैर गिरते पड़ते लड़खड़ाते
हम बड़े तो हो गए गणित से टकराते
आज भी अंकों में उलझ हैं जाते 
साधारण समीकरण ही समझ पाते 
सब्ज़ी की दूकान पर मन है हड़बड़ाता
जब काँटा 420, 140 जैसे आँकड़े दिखाता
"भैया सिर्फ एक किलो, आधा किलो या फिर एक पाव"
क्योंकि उतना ही समझ आता है मोल भाव
दर्जन डेढ़ दर्जन का भी हिसाब है आसान
पर लौकी और गोभी करती है परेशान
अनुमान से ढूँढो तो शायद मिल जाये दूजा
ठीक एक दो किलो का पपीता और ख़रबूज़ा 

आँकड़े ही आँकड़े, चाहे कुछ भी कर लें 
जिंदगी ने नंबरों का जाल है बिछाया 
फोन नंबर, बैंक नंबर, कंस्यूमर नंबर
पिन नंबर, डिन नंबर, अब आधार भी आया

रो धो के कैसे भी जीवन का गणित चलाया
क्योंकि गणित से पीछा कौन छुड़ा पाया ।।