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Wednesday, June 24, 2015

रफ़्ता रफ़्ता

कैसे बदल जाती है हर बात रफ़्ता रफ़्ता
कैसे बदल जाते हैं हालात रफ़्ता रफ़्ता

कब, कहाँ, क्यों, क्या हो जाता है
कैसे उभर आते हैं सवालात रफ़्ता रफ़्ता

शब-ए-ग़म भी लम्बी हुआ करती है अक्सर
फ़िर भी गुज़र जाती है हर रात रफ़्ता रफ़्ता

यह इश्क़ भी ज़ालिम मर्ज़ होता है ऐसा
करती है असर भी हयात रफ़्ता रफ़्ता

यूँ तो मेरी उस से पहचान है पुरानी
पर भूलने लगी हूँ हर बात रफ़्ता रफ़्ता

देने वाला था मुझको जो प्यार बेशुमार
खुशीयाँ चुरा के ले गया वो यार रफ़्ता रफ़्ता

I wrote this one in 1986 ... those were the days.... of Gazals. Recited it on the inaugural Poetry Event of FWA.  Please do not copy, paste or reproduce in any form without my written consent. All creative works on my blog are registered. Copyright@Mridual aka writingdoll

Tuesday, June 23, 2015

एक लड़की की तरह???

"क्या एक लड़की की तरह रोता है!"
"क्या एक लड़की की तरह रोता है?"

"क्या   एक    लड़की  की  तरह  रोता  है?"
मात्र इन 'शब्दों' से ही 
एक लड़के का अपमान होता है
कि जैसे रो देना हो एक गन्दी बात,
अौर लड़की होना उससे भी शर्मनाक
इसी क्षण  में…….
उसके मन में…..
एक सोच जन्म लेती है 
जो किसी भी अौरत के अपमान का
अंकुर बो देती है।

Wrote this piece when I was working on my art installation Broken Doll House at KGAF 2013. This became a very popular and was widely shared. Recited this for the TV Coverage for news channels, recited this @Prithvi Theatre, open mic, Avotoko Room theatre, FWA poetry event. Please do not copy, paste or reproduce in any form without my written consent. All creative works on my blog are registered. Copyright@Mridual aka writingdoll