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Friday, February 27, 2015

Measure of Pain

Could you measure the pain
I am going through
Could you measure?
Measure it any how?

In Miles, the distance
I ran,
to run away from miseries.
In Gallons, the tears
I shed,
in many nights in many years.
In Tons, the load
I carried,
on my chest through
this long journey.

Its pain all over
in miles
in gallons
in tons.

Could you measure?

Tuesday, February 10, 2015

लैची चाचा के संग होली

होली आई, आई होली
खुश है बहुत बच्चों की टोली
नयी पिचकारी नए रंग
खेलेंगे अपनों के संग
भर पानी गुब्बारों में
फेंकेंगे चौबारों से।

हर होली पे लैची चाचा
पहन सफ़ेद कुरता आते
ज़रा रंग लग जाये तो
जोर जोर से चिल्लाते

मन करता था पूछें उनको
घर में काहे नहीं रहते हो
बच्चों को उकसाते हो
क्यों इतना गुस्साते हो

इस से पहले लैची चाचा
कुछ कहते कुछ समझाते
चारों ओर से गुब्बारों की
उन पर ऐसी बौछार पड़ी
अबीर गुलाल के उड़ते बादल
पिचकारी की भी धार पड़ी
नीले, लाल, पीले, काले
मुँह, सर, पैर बुरे रंग डाले

यहाँ वहां खड़े थे रंग चोर
चारों ओर मचा था शोर
रंगे वानरों की भीड़ में
किसी को न पहचान सके
लैची चाचा संग हुआ क्या
बौखलाए कुछ न जान सके

बंदरों के समान उछलती
आई फिर बच्चों की टोली
रंग बिरंगी गुड़िया जैसी
इक नन्ही सी लड़की बोली
"लैची चाचा बुरा न मानो
होली है,  होली है होली।"

Childhood memories are the sweetest and they occupy that special corner in one's heart. 'Laichee' uncle was one eccentric old man in my home town, who reacted quite similar to the way I have written here. He hated it when someone called out 'Laichee' .... and hurled shoes at them. I bore the brunt of someone's mischief when he hurled a shoe at me on my way back home from school. I never knew why. Then he would actually dare people to spoil his white Kurta on Holi. Everyone was so scared yet people would throw some colour at him from roof tops. This would kick start his non stop gaalis and laughter all around. This poem is dedicated to his memory..where ever he is. And Holi is a wonderful festival of colours to express love and joy.. even to the eccentric oldies. :) Wrote in March 2014

Do not copy in any way. It is registered under copy right law. mridual@writingdoll

उम्र बनाम ज़िन्दगी

उम्र गुज़ारी नहीं है
दरीचों से झाँक कर
ख़ाक छानी भी है
देखी भी है फाँक कर

स्याह काली रातों में
बुने रंगीन सपनों को
तोड़ते भी देखा है
अपने किसी अपनों को

खुशियों की तालाश में
ख़ानाबदोश की तरह
यहाँ वहाँ कई बार
सरफ़रोश की तरह
ज़िन्दगी गुज़ारी है
लम्हा लम्हा तन्हा तन्हा

गणित ज़िन्दगी का

गणित ज़िन्दगी का

स्कूल में मुझे गणित नहीं था भाता
शायद इसलिए नहीं था आता
या फिर गणित मुझे नहीं था आता
शायद इसलिए नहीं था भाता

मेरे दिमाग में अंकों से बहशत छा जाती
आंकड़ों के सामने दिमाग की बत्ती बंद हो जाती
मेरी माँ का गणित था बहुत अच्छा
मेरे लिए उनकी ऊन का उलझा लच्छा
वह रात को अक्सर मुझे गणित पढ़ाती
गणित से तो मुझे दिन में भी नींद आ जाती
एक एक प्रश्न को वो स्लेट पर समझाती
जो स्लेट पर से मिटते ही दिमाग से मिट जाती
कई प्रश्न मुझे कभी समझ नहीं आए
समझ नहीं आया कि ऐसे प्रश्न ही क्यों उठाये
जैसे, "कि एक टैंक भरता है
पर एक नल टपकता है
तो कितने वक़्त में वह
टैंक खाली करता है'
अरे टैंक है भरना
तो खाली क्यों करना
पानी बचाओ नल बदलवाओ
इन बेवज़ह प्रश्नों से बच्चों को बचाओ

खैर गिरते पड़ते लड़खड़ाते
हम बड़े तो हो गए गणित से टकराते
आज भी अंकों में उलझ हैं जाते 
साधारण समीकरण ही समझ पाते 
सब्ज़ी की दूकान पर मन है हड़बड़ाता
जब काँटा 420, 140 जैसे आँकड़े दिखाता
"भैया सिर्फ एक किलो, आधा किलो या फिर एक पाव"
क्योंकि उतना ही समझ आता है मोल भाव
दर्जन डेढ़ दर्जन का भी हिसाब है आसान
पर लौकी और गोभी करती है परेशान
अनुमान से ढूँढो तो शायद मिल जाये दूजा
ठीक एक दो किलो का पपीता और ख़रबूज़ा 

आँकड़े ही आँकड़े, चाहे कुछ भी कर लें 
जिंदगी ने नंबरों का जाल है बिछाया 
फोन नंबर, बैंक नंबर, कंस्यूमर नंबर
पिन नंबर, डिन नंबर, अब आधार भी आया

रो धो के कैसे भी जीवन का गणित चलाया
क्योंकि गणित से पीछा कौन छुड़ा पाया ।।