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Tuesday, February 10, 2015

गणित ज़िन्दगी का

गणित ज़िन्दगी का

स्कूल में मुझे गणित नहीं था भाता
शायद इसलिए नहीं था आता
या फिर गणित मुझे नहीं था आता
शायद इसलिए नहीं था भाता

मेरे दिमाग में अंकों से बहशत छा जाती
आंकड़ों के सामने दिमाग की बत्ती बंद हो जाती
मेरी माँ का गणित था बहुत अच्छा
मेरे लिए उनकी ऊन का उलझा लच्छा
वह रात को अक्सर मुझे गणित पढ़ाती
गणित से तो मुझे दिन में भी नींद आ जाती
एक एक प्रश्न को वो स्लेट पर समझाती
जो स्लेट पर से मिटते ही दिमाग से मिट जाती
कई प्रश्न मुझे कभी समझ नहीं आए
समझ नहीं आया कि ऐसे प्रश्न ही क्यों उठाये
जैसे, "कि एक टैंक भरता है
पर एक नल टपकता है
तो कितने वक़्त में वह
टैंक खाली करता है'
अरे टैंक है भरना
तो खाली क्यों करना
पानी बचाओ नल बदलवाओ
इन बेवज़ह प्रश्नों से बच्चों को बचाओ

खैर गिरते पड़ते लड़खड़ाते
हम बड़े तो हो गए गणित से टकराते
आज भी अंकों में उलझ हैं जाते 
साधारण समीकरण ही समझ पाते 
सब्ज़ी की दूकान पर मन है हड़बड़ाता
जब काँटा 420, 140 जैसे आँकड़े दिखाता
"भैया सिर्फ एक किलो, आधा किलो या फिर एक पाव"
क्योंकि उतना ही समझ आता है मोल भाव
दर्जन डेढ़ दर्जन का भी हिसाब है आसान
पर लौकी और गोभी करती है परेशान
अनुमान से ढूँढो तो शायद मिल जाये दूजा
ठीक एक दो किलो का पपीता और ख़रबूज़ा 

आँकड़े ही आँकड़े, चाहे कुछ भी कर लें 
जिंदगी ने नंबरों का जाल है बिछाया 
फोन नंबर, बैंक नंबर, कंस्यूमर नंबर
पिन नंबर, डिन नंबर, अब आधार भी आया

रो धो के कैसे भी जीवन का गणित चलाया
क्योंकि गणित से पीछा कौन छुड़ा पाया ।।

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