Welcome to my poetry blog !!

Welcome to my wor'l'd of English, Hindi and Punjabi poetry. All my works are registered and copyright protected. No part should not be reproduced in any manner whatsoever and in any part of the world without the written consent.

Friday, December 5, 2014

स्वच्छ सुन्दर भारत यह मेरा सपना है

स्वच्छ सुन्दर भारत मेरा सपना है
स्वच्छ सुन्दर भारत मेरा अपना है

तन भी साफ़, मन भी साफ़
हो लोगों का जीवन साफ़
स्वच्छ भारत, स्वस्थ भारत
यही मेरी कल्पना है

स्वच्छ सुन्दर भारत मेरा सपना है
स्वच्छ सुन्दर भारत मेरा अपना है

मन में आस, मन में विश्वास
जहाँ देवो का हो वास
'स्वच्छ सुन्दर भारत'
यही मूल मंत्र जपना है

स्वच्छ सुन्दर भारत मेरा सपना है
स्वच्छ सुन्दर भारत मेरा अपना है

जहाँ धरती माँ हो हरी भरी
जहाँ नदियों का जल हो निर्मल
जहाँ स्वच्छता का हो आभास
और सब कुछ लगे ख़ास
मुझे उस भारत में बसना है
वह भारत मेरा अपना है

स्वच्छ सुन्दर भारत मेरा सपना है
स्वच्छ सुन्दर भारत मेरा अपना है


I had written this poem around Independence day.  Those who know me can understand how I feel about this cause. I, along with my friends had taken up Cleanliness Drive in our building three years back against all odds and transformed the surroundings. We still do periodic follow up. There is plenty to do and if we all do a little bit we will create the most beautiful world around us. It extends towards spirituality. From cleaning outside to our inner-selves. 
Copyright. mridual aka writingdoll

Tuesday, October 14, 2014

My life..untitled..(on this birthday)

न जाने आज मेरा कौन सा बर्थ डे है
तीन साल पहले ही तो पहला वोट दिया है
मैं उम्र को सालों में गिनती नहीं हूँ 
इन नम्बरों सालों को समझती नहीं हूँ

बेकार ब्यूटी ट्रीट्मेंट्स मैं कराती नहीं
बेवजह उम्र को भी मैं छुपाती नहीं
कैसा है जैसा है वैसा यह तन है
पर बच्चों का सा चंचल यह मन है

हर सुबह सूरज से धूप ले आती हूँ 
हर शाम चंदा के संग बतियाती हूँ
हँसती हूँ और गुनगुनाती हूँ
बच्चों सी खिलखिलाती हूँ

किसी किसी दिन थोड़ी बड़ी भी हो जाती हूँ
उस दिन गंदे कबूतरों की कलास लगाती हूँ
कुछ बेचारे कौवे भी सुबह को आ जातें हैं
उन्हें कभी कभी पंजाबी परांठे खिलाती हूँ

संवेदनशील कुछ ज़्यादा हूँ
सो भावुक हो पड़ती हूँ
मेरे बच्चे मुझ पे हँसते हैं
जब मैं यूँ ही रो पड़ती हूँ

वो भी फ़िकरे कसता है
जो मेरे अन्दर बसता है
"तुम सचमुच बेमिसाल हो
लुत्फ़ की टक्साल हो"
कह कर वो हँस पड़ता है

"थैंक यू, सब खुद ही करवाते हो
और मेरा नाम लगाते हो
मेरी हर ख़ुशी में तुम
कितने खुश हो जाते हो"
मैं सीटी मार चल देती हूँ

मगरूर नहीं मशहूर नहीं
पर मैं शोहरत से दूर नहीं
जब पाँवो से थक जाती हूँ
तो मैं उड़ने लग जाती हूँ.

मैं ज़िन्दगी के हरेक रस को
निचोड़ कर पिए जाती हूँ
इक इक पल में इक जीवन
कुछ ऐसे मैं जिए जाती हूँ

I share my birthday with Cliff Richard...I like his songs, full of life, very happy.. My birthday is my stock taking day. Today when I started my day this is exactly how I felt. So I wrote this poem. My mind refuses to grow old or get tired or feel sad.. There is so much to do in one life time... so so much. So I can not afford to waste my time..even with my aching feet I will go on...may be take off and start flying.. because someone out there is going to give me the wings and show me the way.

A heart felt thank you to so many friends who wished me today. I am overwhelmed with the love and blessings. I have every reason to smile. :) and laugh :D Thank you God.

Friday, July 25, 2014

कैसी यह दुनिया बनाई विधाता?

या मर्द बनाता या औरत बनाता
या उनको बनाता या हमको बनाता 
कुछ इस तरह से दुनिया सजाता

यह लाँछन लगाते हैं दर्द पिरोते हैं
खंजर चुभोते हैं ऐसे मर्द होते हैं
कैसे ये समझें न रिश्ता न नाता 
कैसी यह दुनिया बनाई विधाता?

क्यों औरत बनाई डरी सकुचाई
निर्भय हुई भी तो मर्द की परछाई 
क्यों उसका दामन खींचता है कोई 
क्यों वह रातों को डर डर न सोई 
क्यों उसे ही सब झेलना है 
सहना समाज़ की अवहेलना है 
क्यों उसे चुप्पी का पाठ पढ़ाया 
सब दर्द लेकर भी सहना सिखाया 
उसी को बाप भाई का रिश्ता बताया 
क्यों उसी को त्याग की मूर्ति बनाया 
सिर्फ औरत बनाता मर्द नहीं 
सिर्फ़ खुशियाँ सजाता दर्द नहीं 
जो खुशियां लुटाती सिर्फ माँ बनाता 
ममता की प्रतिमाओं से दुनिया सजाता 
कैसी यह दुनिया बनाई विधाता ?

क्यों ऐसे आदमी बना दिए बाप 
जो अपनी ही बेटियों से करने लगे पाप 
वात्सल्य और वासना में फ़र्क़ नज़र नहीं आता 
कैसी यह दुनिया बनाई विधाता?

नन्ही नन्ही परियाँ जो उड़ना नहीं जानती
जिनकी भोली आँखे कपटता नहीं पहचानती 
क्यों तू उनका सरंक्षक बन नहीं पाता ?
कैसी यह दुनिया बनाई विधाता?

क्यों ऐसी दुनिया बनाई विधाता?
या उनको बनाता या हमको बनाता 
कुछ इस तरह से दुनिया सजाता।

 Copyright Mridual aka writingdoll

Yes, I am a feminist if that is what my strong views about atrocities on women and girls make me. My heart goes out every time I see an addition to my #BrokenDollHouse.  I am angry with my God for creating a world such as this. How could HE create such barbaric, callous creatures to be called as human beings? This is my dialogue with HIM on this Ekadashi, 22nd July with tearful eyes.

Recited it at #FWA Kavi Goshthi on 20th Feb 2015

Read poignant poetry.  Every poem is based on a real incident or narrative by real people.

Thursday, July 17, 2014

To My Love

To My Love

Its been ages
since I left your home
to wander and to explore
from one lifetime to another

So long
since I felt the comfort of your arms
getting suffocated
in the arms of many men
in many lifetimes
yearning for true love
that was never there

Many lives
of fleeting pleasures
and never ending pain
Many lifetimes
of disgust, guilt, penance
and shame

A very tiring 
long journey
of superficial unions
in the make believe world
like a deep slumber
with dreams
so unreal

I am awake
at last
Nothing allures me any more
I want your love
just like before...


There have been some wonderful changes in my life and I know I have found back my love. I am still a sinner and stuck in the muck but I am aware and I am calling out my Krsna to pull me out...He is smiling at me.. He wants me to try some more.. I am certain He will hold my hand and embrace me forever.  (These words came out on paper sometime last month..)

Copyright Mridual aka writingdoll

Wednesday, July 16, 2014

अब नहीं


अब नहीं

बहुत छुपाया
 बहुत छुपी 
बहुत सहमी
 बहुत डरी

पर अब नहीं।

 तकलीफ़ें
 मुश्किलें
 रुकावटें 

चुप्पी साधे 
 कई साल बीते 

पर अब नहीं।

आँसू 
 शिकायतें 
बेतुकी रिवायतें 

फ़िज़ूल निभाया 

पर अब नहीं।

यादों से कहा है 
जब जी चाहे आओ 
जाओ
 न मुझको आज़माओ 

अब फ़र्क़ पड़ता
रत्ती भर नहीं।

अब नहीं।

Copyright@Mridual aka writingdoll

Tuesday, July 15, 2014

जाम

कई वजहों से हुई खाली बोतल
कई वजहों से बने जाम 
कभी ख़ुशी के नाम 
कभी दर्द के नाम

कभी गम बाँटने की चाह में 
कभी छुपाने वाली आह में 
कभी खिलखिलाते हुए 
कभी सिसकियों के बीच 
कभी दोस्तों के नाम 
कभी दुश्मनों के नाम

कभी भुलाने के लिए
कभी रुलाने के लिए 
कभी दिखाने के लिए 
कभी सताने के लिए 
दिल मिलने के नाम 
दिल टूटने के नाम

कई वजहों से हुई खाली बोतल
कई वजहों से बने जाम 
कभी ख़ुशी के नाम 
कभी दर्द के नाम 

I am just a sparkling wine connoisseur (Champagne or better) but as a perfumer I have worked with absolute alcohols..the finest and purest and I have a nose for quality liquor. Its been fun working with Liquor factory where my leather bag imbibed enough alcohol vapours and sent wrong signals to people. This poem is more of observing many people in my life. Some pakka bewdas !!!

Copyright Mridual aka writingdoll

Its about Hormones

Its about Hormones 

Its a girls' fight
everyday, every night
All in the family
between girls. Grown up
and growing up
Big girl and not so big girls.

Weird changes in wonder years..

Mindless crush
adrenaline rush
aggression for no reason
surge in sentiment
hunger pangs
mood swings 

Lunch box untouched
pile of laundry on bed 
school bag stuffed with torn notes
secret diaries of silly posts
frequent bouts of self pity
occasional doubts about paternity.. ..

Blame it all on hormones.
Silly hormones..
those change when 
you are growing up
and when you pause growing

Hormones at fourteen
hormones after forty..

Those silly fights
are not about any thing..
Its about hormones
hers and hers and hers.


I am a full time mother and moonlighting into my other creative professions.. I like to spend a lot of my time with my daughters. Its been a roller coaster ride of all elements of fun and fear. I keep trying ways to understand them and help them because I had been a rebel, a fussy eater and very sensitive teenager myself..... all because of these silly HORMONES

Wednesday, July 2, 2014

मैंने कहा बादल से

मैंने कहा बादल से:
"अरे नाराज़ हो क्या? 
पल्स पोलियो की बूँदों की तरह 
दो दो बूँद टपका कर चल देते हो"-
कल यही शिकायत की थी मैंने।
"बरसा दो बारिश को बारिश की तरह"-
बस यही गुज़ारिश की थी मैंने।
और तुम बरस पड़े 
जोर जोर से 
घर में पानी घुस आया 
बालकॉनी की ओर से,
पर इसकी शिकायत तुमसे नहीं है।
तुम तो बरसो
जम के बरसो
झम झम बरसो

मन मयूर सा नाच उठा है 
पेड़ो के पत्ते निखर से गए हैं 
कबूतर छज्जों से सट कर दुबक गए हैं 
सड़क धुल गयी है 
लो, पहली छतरी खुल गयी है
धीरे धीरे कई रंग बिरंगी छतरियाँ 
काली बेरंग सड़क पर 
चलने फिरने लगी हैं।
वह खूबसूरत लबादों में,
जिन्हें रेन कोट कहते हैं 
ये स्कूली बच्चे
कितने प्यारे लगते हैं, 
पर रेन कोटों में इनकी पीठ पर 
ऊँट के कूबड़ की तरह 
उभरा हुआ बस्ता 
और पानी से भरे 
गड्ढ़ों वाला रस्ता,
बस यही खलता है,
पर इसकी शिकायत तुमसे नहीं है।
तुम तो बरसो
जम के बरसो
झम झम बरसो

सुनो, अब किसी रोज़ मैं 
छतरी घर पे भूल आऊँगी 
तुम्हारी ताज़ा तरीन बारिशों में 
पूरा भीग जाऊँगी,
अरे वैसे तो लोग 
बारिश को तरसते हैं 
पर बरसने लगे
तो छुपने को भगते हैं,
ना, यह भी शिक़ायत तुमसे नहीं है।
तुम तो बरसो
जम के बरसो
झम झम बरसो


और तुम्हारे धुंधले ठहरे पानी में भी
रंगीन छवियाँ बहुत भाती हैं
वैसे तो तुम्हारी काली घटाएँ
सब रूमानी कर जाती हैं 
पर तुम्हारी बारिश की चंद बूँदें
कम्बखत यादें बहुत सी ले आती हैं,
अरे इसकी भी शिकायत तुमसे नहीं है। 
तुम तो बरसो
जम के बरसो
झम झम बरसो


Yesterday I wrote a blog post guzarish-baarish-ki on my blog Fortified Quirkies U/A and today morning I wrote this poem. Recited this poem @FWA's inaugural Poetry Event in June 2015. Please do not copy, paste or reproduce in any form without my written consent. Copyright@Mridual aka writingdoll

Monday, June 30, 2014

Today My Tea Tasted So Bitter

Today my tea tasted so bitter…

Brewed in my Chinese kettle
boiled water poured over
tiny cinnamon sticks and orthodox tea
from the gardens in the east
From the same hand picked blend
of green 'two and a bud'
dried n packed in golden foil

Rich fragrant brew
rushed out from the spout
into my favourite mug with blue flowers.

A whiff of my aromatic potion lifted my spirits
just as the smell from the crispy folds of
a morning newspaper
from where I sipped news along.

'Perfect way to start my day'..I told myself.

"Starvation Deaths in Tea Gardens"
I read it over n over
And reached for another sip
and my tea tasted so bitter
salty, as if blended with the sweat of tea laborers
tinted with the sucked blood
from those emaciated bundle of bones.

I pushed my tea cup away
but not memories
in the pictures I had clicked
of the lush green bushes
In the stillness of my tea gone cold
I saw reflections
of poorly fed frail figures
plucking two and a bud
in the hot blazing sun,
for creating a fine blend
for a fresh start
to someone's day...

Copyright@Mridual  aka writingdoll Please do not reproduce without written consent of the poet.

This poem is in response to this news

Thursday, February 27, 2014

My Cup of Tea

My morning cup of tea
is flavoured with cinnamon,
fresh green smell of
ferns, Diphenbachias and Arelias
from my balcony..
the misty dewy whiff of the sea.
Colour-enhanced
by the golden rays
of the morning sun.

The bells of the temple down
makes it divine ritual..
With every noiseless sip
with the sweet sound of birds
my mind is sorted
and so is my day..

But one odd day
when I held my cup of tea
and thought about stories
shared with friends
over a cup of tea,
I saw my soul stir up
in the stillness of hot tea
when I remembered the brew
shared with a friend
The last cup
the tragic end..

And in my hand
the cup of tea
turned cold
just as me.

We are so busy with our lives that we do not really pause and reflect on small pleasures of life. My tea time is a ritual I love...main aur meri chai.. It is also reflective, a short pause when I switch off from the word to have an inner dialogue. I remembered once the chai shared with a very dear friend and someone who is no more...there were endless memories in that last cup of chai we shared. 

Copyright mridual aka writingdoll. No work should be reproduced or copied without my written consent.